Bade Ghulam Ali Khan Life Story (बड़े घुलाम अली खान जीवनी )



Who would not know that a music lover who would not know the elder Ghulam Ali Khan, the master of the Patiala gharana? As much as you were famous in the classical world, at least it was also famous in the film world. Your singing Thumariyan came, nor did Balam's Karu Sajni and Yad Piya came so famous that it resonates in every person's ears. You were born in 1901 in Lahore. Your father's name was Ustad Kale Khan whose lineage tradition was that of musicians. There was a musical atmosphere in the house since childhood.Ghulam Ali first started teaching music from his uncle. Unfortunately he died after a few days, so he started taking music education from his father. For a few days you also played the violin. You had three younger brothers - Barkat Ali, Mubarak Ali and Amin Ali Khan. After some time you went to Bombay and Ustad Sindhi started learning to cough cough. After living there for some time, returned to Lahore with his father, your fame started to grow slowly.Your fame started increasing with your first program held at the Calcutta Music Conference. After partition in 1947, you left India to Karachi.

Started living in Pakistan. Occasionally, he used to come to India to participate in music conferences. His mind was there. He expressed his desire to return to India and the Government of India accepted his request. After that, he started living in Bombay, near 1960, he suffered from paralysis and caught a bed. At that time, a lot of trouble came from the financial point of view.The reason, he never tried to collect money. Whoever got it cleaned in a few days. Therefore, in October 1961, the Government of Maharashtra gave them 5 thousand financial aid for medicines. After some time he became well and started giving his program. You broadcast your program several times under the All India All India Radio program. Allahabad, Varanasi, Kolkata, Delhi, Jammu, Srinagar etc. Wherever there will be a good music conference, you must be controlled. Khansaheb was very simple and sociable by nature, but he used to sing songs like moody. The song was his addiction. Could not live without singing. They also used to sing and sing. Komal Risham's Yemen started singing while performing a war, but there was no difference in the appearance, although Rishabh was gentle. He had so much control over himself that he would say the most difficult vocal groups in a very simple manner. The elasticity of the throat was unique. From wherever he wanted, he used to turn the throat quickly. You were a great expert in the thumri of Punjab Ang. From the tricky movements, voluptuous taunts, hard gamut, as if they were playing, their listeners would press their fingers under their teeth, but it was a simple thing for them. The voice was as flexible as yours. You were as big as that. Big mustache, kurta and small sealing pajama and Madhuri looked like a wrestler with a black hat, but in singing and speaking were the opposite. Regarding the houses of music, you said that the houses have destroyed the music. People have started to be arbitrary under the guise of gharanas, as a result, there has been a lot of mourning. In the context of Mudra-dosha, the idea of ​​Bade Ghulam Ali Khan was that while singing, without causing any disturbance and without any kind of emphasis, you should create life in vowels. The great servant of music broke away from us forever on 23 April 1968. His son Munawar Ali also fell in love with God for a few days.








पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ को कौन ऐसा संगीत-प्रेमी होगा जो न जानता होगा? आप जितना शास्त्रीय संगीत-जगत में प्रसिद्ध थे, कम से कम उतना ही फिल्म-जगत में भी प्रसिद्ध थे। आपकी गाई ठुमरियाँ आये न बालम का करू सजनी तथा याद पिया की आये इतनी प्रसिद्ध हुईं कि हर व्यक्ति के कानों में गूंजती हैं। आपका जन्म सन् 1901 में लाहौर में हुआ। आपके पिता का नाम उस्ताद काले खाँ था जिनकी वंश-परम्परा संगीतज्ञों की थी। बाल्यकाल से ही घर में संगीत का वातावरण था। गुलाम अली ने पहले अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। दुर्भाग्यवश कुछ ही दिनों के बाद उनकी मृत्यु हो गई अतः वे अपने पिता से संगीत-शिक्षा लेने लगे। कुछ दिनों तक आप सारंगी भी बजाते रहे। आपके तीन छोटे भाई थे- बरकत अली, मुबारक अली तथा अमीन अली खाँ। कुछ समय के बाद आप बम्बई चले गये और उस्ताद सिन्धी खांसी गायन सीखने लगे। कुछ समय तक वहाँ रहने के बाद पिता के साथ लाहौर लौट गये आपकी ख्याति धीरे-धीरे बढ़ने लगी। आपका पहला कार्यक्रम कलकत्ता संगीत-सम्मेलन में हुआ उस कार्यक्रम से ही आपकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी। सन् 1947 में विभाजन के बाद आप हिंदुस्तान छोड़कर कराँची.

पाकिस्तान में रहने लगे। बीच-बीच में कभी-कभी संगीत-सम्मेलनों में भाग लेने के लिये हिन्दुस्तान आया करते थे। उनका मन वहाँ नागा। उन्होंने भारत लौटने की इच्छा प्रकट की और भारत सरकार ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसके बाद से वे बम्बई में रहने लगे सन् 1960 के पास वे लकवें से पीड़ित हो गये और खाट पकड लिया। उस समय आर्थिक दृष्टि से काफी परेशानी सामने आ गई। कारण, उन्होंने कभी भी पैसा इकट्ठा करने की कोशिश नहीं की। जितना भी मिला उसे कुछ ही दिनों में साफ कर दिया। इसलिये अक्टूबर 1961 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें 5 हजार आर्थिक सहायता औषधि के लिये दी। कुछ समय के बाद वे अच्छे हो गये और अपना कार्यक्रम देने लगे। आपने कई बार अखिल भारतीय आकाशवाणी कार्यक्रम के अन्तर्गत अपना कार्यक्रम प्रसारित किया। इलाहाबाद, वाराणसी, कोलकाता, दिल्ली, जम्मू, श्रीनगर आदि जहाँ भी कोई भी अच्छा संगीत-सम्मेलन होगा,आपको अवश्य ही नियंत्रित किया जाता। खाँसाहेब स्वभाव के बड़े सरल और मिलनसार थे, किन्तु मूडी श जय जहाँ मन आता गाने लगते । गाना उनका व्यसन था। बिना गाना गाये रह नहीं सकते थे। गाते-गाते गायन में प्रयोग भी करते । एक वार को करते करते कोमल ऋषम की यमन गाने लगे, लेकिन स्वरूप में कहीं अन्तर नहीं दिखाई पडा, यद्यपि कि ऋषभ कोमल था। स्वयं पर उन्हें इतना नियन्त्रण था कि कठिन से कठिन स्वर-समूह बड़े सरल ढंग से कह देते। गले की लोच तो अद्वितीय थी।जहाँ से चाहते, जैसा भी चाहते,गला शीघ्र घुमा लेते थे। पंजाब अंग की ठुमरी में तो आप बड़े सिद्धहस्त थे। पेचीदा हरकतें, दानेंदार ताने, कठिन सरगमों से मानों वे खेल रहे हों उनकी हरकतों पर सुनने वाले कोई दांतों तले अंगुली दबा लेते थे, किन्तु उनके लिये जैसे साधारण सी बात थी। आवाज आपकी जितनी लचीली थी.आप उने ही विशालकाय थे। बड़ी-बड़ी मूछें, कुरता और छोटी मोहरी का पायजामा और माधुरी काली टोपी से पहलवान से मालूम पड़ते थे, लेकिन गायन और बोलचाल में ठीक इसके विपरीत थे। संगीत के घरानों के विषय में आपका कहना था कि घरानों ने संगीत का सत्यानाश कर दिया है। घरानों की आड़ में लोग मनमानी करने लगे हैं, फलस्वरूप बहुत मतमतांतर हो गये हैं ऐसे ही लोग घरानों को बदनाम करते हैं। मुद्रा-दोष के संदर्भ में बड़े गुलाम अली खाँ का विचार था कि गाते समय बिना मुँह बिगाड़े तथा बिना किसी किस्म का जोर डाले स्वरों में जान पैदा करनी यहिये। संगीत का महान सेवक सदा-सदा के लिये 23 अप्रैल 1968 को हम लोगों से अलग हो गया। उनके पुत्र मुनव्वर अली भी कुछ दिनों याद ईश्वर के प्यारे हो गये।




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