Pandit VishnuNarayan bhatkhande ji ki jivni
पं० विष्णुनारायण भातखंडे जी की जीवनी।
उन्नीसवीं शताब्दी ईसवी का उत्तरार्ध भारत के इतिहास में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण समय था। इसी समय में बड़े-बड़े राष्ट्र नेतागण दादाभाई नारोजी, लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्रपाल, सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी, सर फिरोजशाह मेहता, श्रीनिवास शास्त्री एवं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जैसे पैदा हुए। ऐसा कौन व्यक्ति इस संसार में होगा जिसने कविगुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर, सर जगदीश चन्द्र बोस, एम. विश्वेश्वरैया श्रीरामकृष्णपरमहंस, स्वामी विवेकानंद, रमण महर्षि, सी.वी.रमन का नाम न सुना होगा।
इसी कालावधि में संगीत क्षेत्र में भी कई चिरस्मरणीय विभूतियों का उदय हुआ। राजा सौरीन्द्र मोहन टैगोर, कृष्णधन बनर्जी, चिन्नुस्वामी मुदलियार जैसे संगीत शास्त्रकार, जिन्होंने अपने जीवन भर केवल संगीत के प्रेम के कारण निरपेक्ष भाव से इस कला एवं विद्या की सेवा करके जनता को ज्ञान लाभ कराया। तानरस खाँ, हदुहस्सु खाँ, बड़े मुहम्मद खाँ, बन्देअती खाँ बीनकार, अलीहुसैन खाँ बीनकार, इनायत हुसेन खाँ, नत्थन खाँ, कुदीसिंह, नानासाहब पानसे, अल्लादिया खाँ, अबदुल करीम खाँ, बालकृष्ण बुआ, भास्कर बुआ, शंकर राव पंडित, विष्णु दिगंबर जी तथा अन्यान्य अनेक धुरंधर भारत विख्यात गायक-वादक, जिन्होंने अपनी अनुपम कला का परिचय जनसाधारण को देकर देश भर में रागदारी संगीत कला की ज्योति प्रज्वलित रखी।
इन्हीं महान विभूतियों में से संगीत क्षेत्र में एक अग्रगण्य विभूति गुरूदेव पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे जी थे, जिनका जीवन संगीत के पुनरुद्धार के लिये ही बीता। पंडित जी का जन्म एक चित्तपावन महाराष्ट्रीय ब्राह्मण कुटुम्ब में १० अगस्त १८६० में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन बम्बई के वालुकेश्वर में हुआ। उनका जन्म उस जाति में हुआ था कि जिनको कुशाग्र बुद्धि की देन निसर्गतः ही प्राप्त होती है। पंडित जी के पिताजी श्री नारायणराव उर्फ नाना बम्बई में ही एक धनी सेठ के यहाँ मुनीम थे। इनके पूर्वज कोंकण में नागाँव नामक गाँव के रहने वाले थे। दो-तीन पीढ़ियों से ये बम्बई आकर बसे थे यह मकान अब भी वालुकेश्वर में समुद्र तीर पर विद्यमान है। इस समय भी यदि हम वालुकेश्वर का पर्यटन करने जायें तो एक तीर्थ स्थान के दर्शन का आनन्द मिलेगा।
पं० जी का बाल्यकाल इसी वालुकश्वर में बीता। नाना साहब के तीन पुत्र कन्यायें थी। ज्येष्ठ पुत्र का नाम त्रिंबकराव था। आप कुछ वर्ष पुलिस में नौकरी करके बुवावस्था में ही स्वर्गस्थ हो गये उनके पश्चात पंडित जी का जन्म हुआ। व दो पंडित जी को संगीत की अभिरुचि दिलानेवाली उनकी माता ही थी। माला जी के कंठ से निकलती हुई सुमधुर लोरियाँ, भजन स्तोत्रादि सुनकर इस बालक को मानो अपने जीवन कार्य की प्रेरणा ही मिलती रही। ये भजन स्तोत्रादि बड़े ध्यान से सुनते जाते थे, वरन् उनको अपनी टूटी तो में गते भी थे।
पंडित जी छोटे भाई का नाम दरिभा ऊ था ये नी गाने चहान के पेसी थे, र दिया ।त ।े। ये करे हाडको योग प র का ा। ।ा। ।। ( ) में पाटीकर पापाम करते रहते हे। इसी हमें एक दिन उन्होने अपने प्राण अर्पित किये ।
माता के कण्ट से निकले हुए मुखर एक मधुर गीत सुनते सुनते पालक गजानन (पंडित जी को लोग मानने के नाम से पुकते थे) के काम सवी े खब परिगबत ता जी के गाये हुए सब गीत अपनी मराठी प्रायमिक शाला में गाते रहे। पाठ्य पुस्तकों में ये सखी हुई कविताएँ एवं अन्यान्य गीत गाने में बालक गजानन अपने सहाध्यायी लड़की में अग्रगणी थे। अपने सुखर गायन पर उन्होंने परितोषिक भी पांय चे 90-9२ वर्ष की अवस्था में गजानन को बॉसुरी बजाने का शौक लगा। बाँसुरी बजाने में पर्याप्त प्रगति भी की । यालुदर हर वर्ष होने वाले नित्य नैमित्तिक उत्सव मेला में गायन-वादन एवं नोट्य नत्य प्रयोगो में गजानन के बाँसुरी वादन की स्वतन्त्र अथवा साथ संगति में बहुत मांग होती रहती थी। नृत्य नाट प्रयोगा तो गजानन की बांसुरी की संगत अनिवार्य समझी जाती थी।
पंडित जी को घर में 'अण्णा' भी कहते थे मराठी पाठशाला की शिवा समा्त करके अण्णा बम्बई के एल्फिन्स्टन हाई स्कूल में दाखिल हुए। उस समय यह ग्कूल परेल में था। वालुकश्वर से यह स्थान लगभग तीन मील दूर था। उस समय बम्बई में न ट्राम दलती थी न बस। विक्टोरिया (बम्बई में घोड़ागाड़ी को विक्टोरिया कहते है), मोटर एवं बाइसिक्ल ये ही वाहन उस समय उपलब्ध थे, पर इन में से एक का भी उपयोग करने योग्य अण्णा के घर की परिस्थिति नहीं थी।
उसी हाई स्कूल में जाने वाले अपने मुहल्ले के लड़कों के साथ लम्बी वाल चलते हुए, हाई स्कूल के पाठ्य विषयों पर बातचीत करते हुए, हँसते खेलते अण्णा पौने दो घरण्टे के अन्दर पैदल पहुंचते थे।
हाई स्कूल पास करके अण्णा एल्फिन्स्टन कालेज में दाखिल हुए। इसी समय अण्णा को सितार का शौक लगा। उन्हीं के मोहल्ले में गोपाल गिरी युआ नामक एक गुराई सितार बजाया करते थे। इनका सितार वादन सुनकर अण्णाको को भी सितार सीखने की उत्कट इच्छा हुई। उन्होंने गोपाल गिरी बुआ से उनके गुरू का पता पुछा । दुआ अण्णा को एक दिन अपने गुरू के घर ले गये वहाँ जाकर अण्णा देखते क्या है कि एक छोटी सी कोठरी में गददे चटाईयाँ बिछी है, कोने में एक सितार एवं उसी के पास एक बीन, दूसरे कोने में कुछ धूम्रपान का समान हुक्का इत्यादि रखा हुआ और दीवार से लगी हुई एक गद्दी, उस पर एक गाव-तकिया लगा हुआ और उस गद्दी पर एक वृद्ध पुरुप बैठे हुए है उन्होंने "की ऽ55न ? ऐसा प्रश्न नीचे देखते हुए किया। ये महानुभाव अंये थे। "ये ही मेरे गुरु कहकर गोपाल गिरी । ने
उनका परिचय अण्णा से करा दिया। गोपाल गिरी बुआ ने अण्णा का परिचय देकर उनकी सितार सीखने की अकाक्षा अपने गुरु पर प्रकट की। गुरुजी हँस कर बोले "अरे, यह भले घर का लड़का इस में कहा कूद पड़ा ? ये तो बड़ी बैंड़ी विद्या है बाकी सब छोड़-छाड़ कर यदि इसी के पीछे पड़ा तो कहीं रूपये में पाई-पैसा भर हाथ लगेगी । तुम तो कालेज में पढ़कर बी०ए०, एम० ए० होने जा रहे हो। इसको सीखकर क्या करोगे ? पर अण्णा ने आग्रह पूर्वक बताया जो कुछ हो, मैं आपकी सेवा अवश्य करूंगा। और आपकी कृपा होगी तो सितार अवश्य सीखूगां । अरच्छा आया करो, पर प्रथम केवल जो में बजाता हूँ उसको सुनते रहो। सुनते-सुनते उकता जाओगे तो अपने आप आना बंद करोगे। मेरे सितार वादन का कुछ अच्छा परिणाम तुम्हारे मन पर हुआ तो फिर आते रहोगे। फिर तुमको सिखाना आरम्भ करूँगा मेरे सितार वादन का समय रात्रि को नी-दस बजे का है। उस समय आया करो। यह कहकर गुरूजी ने अपना सितार उठाकर लाने को गोपाल गिरी बुआ को आज्ञा दी। सितार लेकर दो घण्टे खूब बजाया जिसको सुन अण्णा के आश्चर्य एवं आनन्द का पार न रहा। उस दिन से अण्णा नित्य प्रति रात्रि को वल्लभदास जी के यहाँ जाकर उनका सितार वादन ध्यानपूर्वक सुनते रहे। गोपाल गिरी बुआ के यहाँ जाकर उनके सितार पर थोड़ा-थोड़ा अभ्यास भी करने लगे। गुरूजी के यहाँ सितार वादन सुनने नियम भी चलता रहा। इसी प्रकार तीन-चार महीने केवल सितार वादन सुनने में ही बीते। इसके पश्चात वल्लभ जी ने एक दिन सितार उठाकर अण्णा के हाथ मे दे दिया और, उनकी बैठक, पकड़, बाँए-दाहिने हाथ की उंगलियों की क्रियाएँ, दोनों हाथों के अँग्ठे सितार पर कहाँ रखे जाते है इत्यादि सितार बाज की बारीकियाँ बताना आरंभ किया। अण्णा ने दो-तीन महीने आँखों से ये सब बातें देखी थीं, थोड़ा सा अभ्यास भी किया था। अब उनको उसे समझने में तथा प्रयोग करने में क्या देर लगती। गुरू जी आश्चर्य चकित हुए और बोले-“अरे तू तो पहले से ही सितार बजाता हुआ दिखता है। क्या बजाते थे ?" अण्णा ने गोपाल गिरी बुआ के सितार पर थोड़ा अभ्यास करने की बात बताई। अण्णा की शिक्षा नित्य आरम्भ हुई रोज रात्रि को १० बजे गुरुजी के यहाँ जाना और दो ढाई घण्टे सितार का अभ्यास करके घर लौटना, यह क्रम तीन-चार वर्षों तक जारी रहा। सितार वादन में अण्णा ने पर्याप्त प्रगति की, यहाँ तक की अण्णा का सितार वादन सुनने को संगीत प्रेमी लोग दूर-दूर से दौड़े आते थे। बंबई में उदयोन्मुख सितार वादक के नाम से प्रख्यात हो गये। कालेज की पढ़ाई तो चलती ही रही।
अण्णा ने सितार वादन का अभ्यास अपने माता-पिता से छिपाकर किया था। सभ्य समाज में संगीत का व्यवसाय तो दूर रहा, संगीत सीखना बुरा समझा जाता था। विशेषतया विद्यार्थी दशा में कोई संगीत सुनने-सीखने लगे तो उसको आवारा, बेकार जीवन नष्ट करने से वाला, कुटुम्ब से, समाज च्युत हुआ समझा जाता था फिर यह कैसे हो सकता है कि सितार सीखने के लिये अण्णा को माता-पिता की सम्मति प्राप्त हो ? वैसे अण्णा घर के बरामदे में सोते थे। घर का मुख्य दरवाजा बन्द करके बाकी सब लोग अन्दर सोते थे। अण्णा का रात्रि के समय गुरू जी के घर आना-जाना इस प्रकार सबसे छिपा रहा। सितार में दो तीन वर्ष के पश्चात जब पर्याप्त प्रगति हुई, अण्णा के सितार वादन के कार्यक्रम उनकी मित्र मंडली में होने लगे। तब एक रोज ऐसे ही एक कार्यक्रम में किन्हीं साहय ने नाना (पिताजी) को भी माना आये और एक और बैठ गये सितार वादन प्रारम्भ हआ। कार्यक्रम में रग आ रहा दुलाया था। सब श्रोतागण मुग्ध होकर झूम रहे थे कि नाना को देखते ही अण्णा पबढ़ा गये और बजाते-बजाते रुक गये और दोनों पिता-पुत्र एक दूसरे को देखकर अवाक रह गये। नाना ने हा- बजाए जाओ, स्क क्यों गये ? माहफिल का रंग मत बिगाड़ो।" अन्त में अच्छा अभ्यास किया है तुमने" इतना ही कहकर चले गये। पर घर जाकर अपनी पत्नी से अवश्य कहने लगे सुना तुमने - “गजा बहुत अच्छा सितार बजाने लगा है जाने किस प्रकार हम लोंगों से ठिणकर इसने यह सब किया। अम्माजी बोली- “हाँ ठीक है, पर उसको ताकीद देना कि कालेज शिक्षाक्रम में सितार का दखल न हो। नाना को यह बात ठीक जँची और अण्णा को सितार के पीछे लगकर अपनी कालेज की पढ़ाई न बिगाड़ने की सूचना मिली। एक वर्ष पूना के डेक्कन कालेज में भी अण्णा साहब पढ़े थे। सन् १८८५ में बी० ए० तथा १८८७ में एल० एल० बी० उत्तीर्ण करके वकालत करने लगे। इस अवधि में नाना(पिताजी) का देहांत हो चुका था। अण्णा का विवाह हुआ, जिससे एक कन्या उत्पन्न हुई थी। पर विवाह के पश्चात् कुछ ही वर्षों में पत्नी और पुत्री दोनों स्वर्गस्त हो गई और अण्णा साहब सदा के लिये एकाकी रह गये।
एल० एल० बी० उत्तीर्ण होने के पश्चात् एकाध वर्ष कराची हाईकोर्ट में उन्होंनें वकालत की। पत्नी एवं पुत्री की मृत्यु के पश्चात् संगीत ही उनके जीवन भर का साथी रह गया था। घर की सम्पत्ति तो कोई बड़ी थी नहीं कि जिस पर जीवन भर निर्वाह हो सकता। अतएव वकालत का केवल चरितार्थ के लिये व्यवसाय करते हुए भी अण्णा साहब संगीत सेवा में लगे रहे।
इसी समय बंबई में "गायन उत्तेजक मंडली" नाम से एक संगीत संस्था चल रही थी। उस समय बंबई के पारसी लोग हिन्दुस्तानी रागदारी संगीत के बड़े प्रेमी एवम् आश्रयदाता थे। गायन उत्तेजक मण्डली संगीत में रूचि रखने वाले कुछ ऐसे ही बनी पारसी सेटियों की चलायी हुई संस्था थी। बंबई आये हुए सब बड़े-बड़े नामांकित गुणी गायक वादको के कार्यक्रम उनको यथायोग्य पुरस्कार देकर इस संस्था में आयोजित किये जाते थे। संस्था का मुख्य उद्देश्य ही यही था कि उच्च श्रेणी का रागदारी गायन-वादन सुनने को मिले। उस समय के भारत प्रसिद्ध समस्त गायक-वादकों के कार्यक्रम इस मंडली में हो चुके थे।
कराची से लौटकर आते ही अण्णा साहब इस गायन उत्तेजक मण्ड़ली के सभासद हुए। गायक वादकों के कार्यक्रम के अतिरिक्त संगीत सीखने की इच्छा रखने वाले सज्जनों के लिये एक संगीत शिक्षक भी इस गायन उत्तेजक मण्डली में नौकर रखे गये। इनका नाम श्री रावजी बुआ बेलगावकर था। वुआ धरुपदिया थे। हैदराबाद दक्खन के जैनुल्ला खों नाम के एक उस्ताद थे, जिनके शिष्य बुआ साहब कहलाते थे। अण्णा साहब ने अब इन बुआ साहब से गायन सीखना आरम्भ किया। कई वर्ष बुआ साहब के पास सीखकर लगभग ३०० ग्रुवपद अण्णा साहब ने कण्ठस्त किये। इसी गायन उत्तेजक मण्डली में और एक उस्ताद अली हुसैन
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