Ustaad Faiyaaj Khan ji ki jivni.









Ustaad Faiyaaj Khan ji ki jivni.

उस्ताद फैयाज खाँ जी की जीवनी।

फैयाज खाँ का जन्म आगरा के रंगीले घराने में सन् 1886 ई. में हुआ था। इनके जन्म से तीन-चार वर्ष बाद ही इनके पिता सफदर हुसैन साहब का स्वर्गवास हो गया था। आगरा घराने के गुलाम अब्बास खाँ को कोई पुत्र न होने के कारण उन्होंने अपनी बड़ी लड़की के पुत्र फैयाज खाँ को गोद लिया और संगीत की शिक्षा दी। यही पुत्र आगे चलकर आगरे घराने का प्रतिनिधि बना। आगरा घराने की शिक्षा और प्रचार का कार्य फैयाज खाँ साहब ने मुख्यरूप से किया है। खाँ साहब को संगीत विरासत में ही मिला था। 5 वर्ष की आयु से 25 वर्ष की आयु तक इन्होंने अपने नाना जी से ही संगीत की शिक्षा ली। खाँ साहब पर अपने नाना जी के अतिरिक्त नत्थन खाँ, जयपुर के अब्दुल खाँ एवं सेनिया दराने के अमीर खाँ का भी प्रभाव पड़ा। विद्या अध्ययन के काल में भी निरन्तर बारह वर्ष तक सूर्योदय से पहले अभ्यास के कारण संगीत इनकी रग-रग में बस गया था। अपने नाना जी के साथ अनेक स्थानों पर घूम-घूमकर उन्होंने जो संगीत सुना उसे भी काफी ग्रहण किया।


इनके नाना बड़े संयमी थे और नाती को भी नियम व संयम में रखते थे। इनके माता-पिता का घराना ध्रुपदियों का था। अतः इनमें रंगीले घराने के संस्कार बनते चले गए, परन्तु नाना जी का घराना ख्यालियों का था। इस प्रकार इनकी गायिकी में ध्रुपद तथा ख्याल दोनों शैलियों का अद्भुत समावेश हो गया। ये प्रुपद, पयार, ख्याल, टुमरी, टप्पा, कब्बाली तथा गजल आदि सभी के अद्वितीय कलाकार थे। युवावस्था अर्थात् 25-30 वर्ष की आयु में ही लोकप्रिय होने लग गए थे। कलकते में अप्पा गणपत राव एवं मौजुद्दीन खाँ से टुमरी एवं दादरे सुनकर अत्यन्त प्रभावित हुए। यह ठंग उन्होंने केवल सुनकर ग्रहण किया था। खाँ साहब ठुमरी एवं दादरे की रचनाओं के मध्य कुछ उर्दू शेर गाकर चार चांद लगा देते थे। इनके द्वारा गायी गई, 'बनाओ प्रतियो' तथा 'पानी भरेगी' रचनाएं अभी तक ताजी लगती है।


अपने प्रभावशाली संगीत से उन्होंने कलकत्ता, पुणे, बम्बई, लखनऊ, बनारस और मैसूर में खूब ख्याति प्राप्त की। इसके परिणामस्वरूप इनकी नियुक्ति बडौदा दरबार में हुई। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में संगीत के कार्यक्रमों का प्रदर्शन किया है इनकी प्रसिद्धि इतनी बटी कि सन 1938 ई. में उन्हें मैसूर दरबार में 'आफताब-ए-मौसिकी' की उपाधि से नवाजा गया। उस्ताद रजव अली खों, फिदा हुसैन खाँ, अल्लादिया खो, मुश्ताक हुसैन खा, मुहमद सिद्दिक खाँ, मियाँ जान तथा उस्ताद अब्दुल करीम खाँ आदि विद्वानों का इन पर बहुत प्रभाव पड़ा। फैयाज खां को प्रकृति ने घन, मन्द्र और गंभीर कण्ठ दिया था। लय और ताल पर इनका पूर्ण अधिकार था। खाँ साहब थिरकुवा इनके लिए कहते थे कि 'यह तो लय का बादशाह है। इनकी तानों में गहराई एवं विविधता थी। ये स्वर, भाषा, अर्थ, भाव तथा लय सभी का आनन्द लेकर गाते थे। ब्रज, हिन्दी एवं उर्दू भाषाओं पर इन्हें अधिकार प्राप्त था जयजयवन्ती, नट-विहाग, दरबारी, देशी, तोड़ी तथा भैरवी आदि इनके प्रिय राग थे। इनकी गायिकी में नोम-तोम का आलाप एक प्रमुख विशेषता थी तथा बोल-ताने और मुखड़े पर आने का ढंग अद्भुत था। इनक गाई हुई ठुमरी 'बाजूबन्द खुल खुल जाए' बहुत प्रसिद्ध हुई।


1915 ई. में इन्होंने बड़ौदा दरबार का आश्रय लिया। सन् 1920 ई. में इन्दौर के महाराज होलकर ने इन्हें होली के अवसर पर सुना और दस हजार रुपये, हीरे का एक कण्टा और एक अंगूठी प्रदान की। सन् 1925 ई. में ये लखनऊ में आयोजित "All India Music Conference" में सम्मिलित हुए। इन्हें यहाँ 'संगीत चूडामणि' की उपाधि और स्वर्णपदक दिये गए। इनको जोधपुर, जयपुर पालनपुरा, ईडर, चम्पानगर, वनैली तथा महिषादल इत्यादि रियासतों में सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त पं. भातखण्डे ने अनेक संगीत सम्मेलनों में इनको आमन्त्रित किया। इलाहाबाद में एक संगीत सम्मेलन में उन्हें 'संगीत भास्कर' और 'संगीत सरोज' उपाधियों से सम्मानित किया गया इन्होंने बम्बई, दिल्ली, लखनऊ, लाहौर तथा कलकत्ता आदि अनेक आकाशवाणी केन्द्रों में अपने कार्यक्रम दिये।


उस्ताद फैयाज खाँ का तखल्लुस 'प्रेम-प्रिया' था। इनके द्वारा रचित अस्थाइयों, दुमरी, होरी और रसिए आज भी लोगों के दिलों में गुंज पैदा करते हैं। कहा जाता है कि नट विहाग की 'मन झन झन पायल बाजे' सुनकर ही 'सहगल' उस्ताद फैयाज खों के शागिर्द बनने को आतुर हो गए थे और बाद में स्व. सहगल ने अपना सर्वोत्तम रिकार्ड 'झुलना झुलारी आ मोरी अभया की डार पर कोयलिया बोले' उस्ताद फैयाज खाँ को भेट कर दिया था। इन्होंने 'प्रेम-प्रिया' के नाम से लगभग 250 गीतों की सुन्दर रचना की है। इन्होंने अनेक शिष्य तैयार किये इनमें से-श्री रत्नाकर, निसार हुसैन खाँ, दिलीप चन्द्र बेदी, अजमत हुसैन, बशीर खाँ, अता हुसैन तथा स्वामी बल्लभदास आदि उल्लेखनीय हैं। स्वर्गीय विलायत हुसैन खाँ ने भी इनसे काफी शिक्षा प्राप्त की थी। कुछ लोगों के अनुसार फैयाज खाँ एक आदर्श शिक्षक नहीं थे, क्योंकि इनका व्यक्तित्त्व शिक्षक बनने के अनुकूल नहीं था। कलाकार होने के नाते इनका मन सदा ही कल्पना की उड़ाने भरता रहता था। वे गंडाबन्द शार्गिदों से भी धन नहीं स्वीकारते थे। इसके विपरीत वे सदा ही धन का दान करते थे। आधुनिक काल में इतना सम्मान किसी भी मुसलमान गायक को नहीं मिला, जितना इनको मिला है। लगभग 64-65 की आयु में 5 नवम्बर सन् 1950 ई. को बडौदा में इस प्रतिभासम्पन्न कलाकार का स्वर्गवास हुआ।

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