The Condition Of Classical Music In Ramayan.

Condition of Classical Music in Ramayan.


भारतीय इतिहास के अनुसार रामायण की रचना त्रेता युग में हुई। यूरोपीय विद्वानों अनुसार रामायण की रचना ईसा से लगभग 500 से 300 वर्ष पूर्व हो चुकी थी। इसमें जो कुछ बाद में जोड़ा गया, वह ईस्वी शती सन् 200 तक सम्पूर्ण हो चुका था। कुछ यूरोपीय विद्वानों का मत था कि रामायण यूनान के कवि 'होमर' से प्रभावित हुआ था, किन्तु अब सभी यूरोपीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि यवन या यूनान का रामायण पर कोई प्रभाव नहीं है। यह बात भी प्रमाणित हो चुकी है कि रामायण का काल बुद्ध से पूर्व का था। रामायण काल का संगीत यह सिद्ध करता है कि इस काल तक हमारा संगीत पर्याप्त उन्नत दशा तक पहुंच चुका था। जातिगान का प्रचार था । गान्धर्व शास्त्र पर्याप्त रूप में व्यवस्थित हो चुका था । कुशीलव लोग गान्धर्वतत्त्वज्ञ होते थे। तत्, सुषिर, घन और अवनद्ध सभी प्रकार के वाद्यों का प्रचुर प्रयोग था । स्वर और ताल दोनों को गान तथा वाद्य-विशारद अच्छी प्रकार से जानते थे। नर्तक, गायक, नट, शैलूष इत्यादि का समाज में यथेष्ट समादर था। रामायण काल तक आते-आते व्यवसायी संगीतज्ञों के समूह बन जाने के भी प्रमाण मिलते हैं।

रामायण में सांगीतक तत्त्व

संगीत शब्द का वर्णन किष्किन्धा काण्ड के 28वें सर्ग के 36वें और 39वें श्लोक में आया है। श्रीरामचन्द्र किष्किन्धावन का वर्णन करते हुए लक्ष्मण से कहते हैं:- "हे लक्ष्मण ! देखो भ्रमरों का गुंजार वीणा के मधुर स्वर जैसा है। मेंढक मानों अपने कण्ठ से ताल के 'बोल', बोल रहे हैं। मेघ का गर्जन मृदंग के नादं जैसा सुनाई दे रहा है। और भी देखो ! ये मयूर संगीत का कैसा दृश्य उपस्थित कर रहे हैं। इन लम्बी-लम्बी चोटियों वाले मयूरों में से कुछ तो नाच रहे हैं, कुछ गा रहे हैं तथा कुछ वृक्षों के अग्रभाग में बैठे हुए इस नृत्य और गान का आनन्द ले रहे हैं, लगता है वन में संगीत चल रहा है। इस युग में वाद्य, गान और नृत्य तीनों के समूह लिए के 'संगीत' शब्द का प्रयोग हुआ है। रामायण में गीत' शब्द का प्रयोग भी अनेकों बार किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि रामायण काल तक 'संगीत' शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग होने लग गया था।

क्रियात्मक-संगीत और संगीतशास्त्र के लिए उस समय 'गन्धर्व' शब्द का प्रयोग होने के प्रमाण भी मिलते हैं। ठाकुर जयेदव सिंह के अनुसार:- "भरत से ज्येष्ठ राम संसार भर में गान्धवों में श्रेष्ठ, अतिश्य कल्याणविशिष्ट, सज्जन, क्षोभ के कारण उपस्थित होने पर अक्षुब्य रहने वाले और महामति थे। इस संदर्भ में 'गान्धर्व' का अर्थ टीकाकारों ने संगीतशास्त्र अथवा शास्त्रज्ञ लिया है। एक अन्य वर्णन के अनुसार संगीत के लिए गान्धर्व तथा युद्ध संगीत के लिए युद्ध गान्धर्व संज्ञा प्राप्त होती है। सामवेद काल से ही शास्त्रविहित संगीत को देशी-संगीत से भिन्न समझा गया है। वैदिककाल में शास्त्रीय संगीत के लिए गान्धर्व संज्ञा प्राप्त होती है। रामायण काल में मार्ग-संगीत को बहुत उच्च स्थान प्राप्त था। मार्ग-संगीत के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिसका देवताओं के सम्मुख प्रयोग किया जाता हो और जो मुक्तिदायक हो, वह मार्ग-संगीत है। गान्धर्व के लिए भी बतलाया गया है कि जो देवताओं को इष्ट हो और श्रेय का हेतु हो, वह गांधर्व है। अतः गान्धर्व 'मार्ग' का ही पर्याय कहा जा सकता है। ताल एवं लय

संगीत में हस्व एवं दीर्घ उच्चारण के लिए ताल एवं लयों का प्रयोग किया जाता है। ताल तथा लय हाथ से एवं धन तथा अवनद्ध वायों के माध्यम से दी जाती है। रामायण में 'पाणिवादकाः' संज्ञा हाथ से ताल देने वालों के लिए ही प्राप्त होती है। स्वस्तिक एवं करताल आदि घन वाद्य लय दिखाने के लिए प्रयुक्त होते थे। वनवास से लौटने पर राम के राजकीय जुलूस आगे-आगे स्वस्तिक एवं ताल वादक भी चल रहे थे। महर्षि भारद्वाज ने भरत एवं उनकी सेना में के स्वागत में जो संगीत समारोह किया था, उसमें शम्या एवं ताल दिखाने वाले संगीतकारों का भी एक भिन्न दल नियुक्त किया गया था। ग्रह, अंश, मन्द्र, तार, अल्पत्व, बहुत्व इत्यादि की स्थिति दिखलाते हुए स्वर का विस्तार करना, 'आलाप' मात्र कहलाता था। रामायण में एक स्थल पर करण शब्द का प्रयोग मिलता है। जब आलाप लयबद्ध होता है, तो उसे 'वर्तनी' अथवा ‘वर्तिनी' कहते हैं। जब वर्तनी को द्रुतलय में प्रयोग करते हैं, तो उसे 'करण' कहते हैं जान पड़ता है कि यहाँ 'करण' तीनों स्थान में द्रुतलय में आलाप के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। गायन, वादन को लय तथा तीनों स्थानों से युक्त होना चाहिए।

रामायण काल में वादन संगीत

रामायण में चारों प्रकार के वायों के प्रयोग का उल्लेख मिलता है। तत् वाद्यों के अन्तर्गत वीणा, विपंची तथा वल्लकी आदि, आनद्ध के अन्तर्गत सभी प्रकार के ढोल सम्बन्धी बाय, भेरी, दुन्दुभि, मृदंग, पटह, मण्डूक, डिण्डिम, पणव, मुरज, कुम्भ, चेलिका' तथा सुषिर के अन्तर्गत वेणु, शंख तथा घन के अन्तर्गत करताल, मंजीरे एवं पाणिवादकों को रखा जा सकता है। आनद्ध वर्ग के वायों को हाथ और दण्ड दोनों से बजाया जाता था। कहा जाता है कि इसके दण्ड सुवर्ण के भी होते थे। वर्णित वाद्यों को दो विशिष्ट प्रकारों से प्रयोग किया जाता था। कुछ वायों का संगीत सम्बन्धी तथा कुछ के अन्य कार्यों में प्रयोग होने के संकेत मिलते हैं। इसी प्रकार कुछ वाद्य ऐसे भी थे, जिनका दोनों ही विषयों में प्रयोग होता था। इस काल में भी तत वायों में वीणा को अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। कहीं-कहीं इसके स्वतन्त्र संकेत भी मिलते हैं, परन्तु साधारणतः इसका वर्णन गायन के साथ ही प्राप्त होता है। रामायण कालीन संगीत में वीणा की वादन विधि का भी वर्णन मिलता है। ऐसे भी संकेत मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि वीणा का वादन कोण तथा नाखुन दोनों ही विधियों से किया जाता था। रामायण में तुर्य शब्द प्राप्त होता है। सम्भवतः यह वृन्दवादन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

रामायण काल में नृत्य


नृत्य का उल्लेख रामायण में अनेक स्थानों पर हुआ है। भारतीय परम्परा के अनुसार शास्त्रीय अथवा लौकिक नृत्यों का सम्बन्ध विभिन्न देवी-देवताओं के साथ जोड़ा गया है। रामायण काल में नृत्य का प्रयोग भी संगीत की ही भान्ति भागवान की आराधना के लिए किये जाने के संकेत मिलते हैं। इस बात का कुछ संकेत उत्तरकाण्ड से भी प्राप्त हो जाता है, जहाँ रावण नृत्य एवं गायन के साथ भगवान की आराधना करता है। रामायण में नृत्य के तीनों रूपों नृत्य, नृत्त तथा लास्य का उल्लेख प्राप्त होता है। नृत्य में आंगिक अभिनय द्वारा भाव प्रदर्शन, नृत्त में ताल, लय एवं अंगविक्षेप पर जोर दिया जाता है तथा लास्य एक प्रकार का सुकुमार नृत्य है, इसमें गीत तथा वाद्य के साथ नृत्त व नृत्य दोनों का समावेश होता है। नृत्य का सम्बन्ध अप्सराओं के साथ उसी प्रकार प्राप्त होता था, जिस प्रकार गीत के साथ गंधवों का समाज में नर्तक एवं नर्तकियों के ऐसे वर्ग का भी वर्णन मिलता है, जिनकी जीविका का साधन ही नृत्य और नाट्यादि था। कुशल गायक, वादक एवं नर्तकों को राजमहल में भी स्थान दिया जाता था। इस प्रकार रामायण में संगीत के तीनों तत्त्वों को भली-भान्ति देखा जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय संगीत का पर्याप्त विकास हो चुका था।

दैनिक जीवन में संगीत


नगर की संपन्नता एवं प्रसन्नता का अनुमान उसमें गूँजती वाद्यों की ध्वनि से लगाया जा सकता है। किष्किन्धा, लंका और अयोध्या आदि नगरियाँ सर्वदा संगीत से गूंजती रहती थीं। किसी भी नगरी का संगीतादि से रहित होना अशुभ या आश्चर्य का प्रतीक होता था। अयोध्या इत्यादि सुसंस्कृत नगरों में तो गीत, वाद्य तथा नृत्य का बहुत प्रचार था ही, रावण के यहाँ भी इसके पर्याप्त प्रचार के उल्लेख मिलते हैं। सुन्दर काण्ड के 20वें सर्ग में रावण सीता को बहुत से प्रलोभनों द्वारा यह समझाता है कि मुझे अंगीकार कर लो। उन प्रलोभनों में उसने गीत, वाद्य तथा नृत्य को भी गिनाया है। सुग्रीव के महल में प्रवेश करते ही लक्ष्मण ने वीणा के साथ उसके मधुर स्वरों में मिले हुए गीत सुने। इन सब उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस काल में गीत, नृत्य तथा वाद्य का सर्वत्र प्रचार था ये जीवन के अभिन्न अंग बन गए थे। गीत, वाद्य तथा नृत्य के सामुदायिक रूप में उत्सव भी होता थे। ऐसे उत्सवों की पारिभाषिक संज्ञा 'समाज' थी। साधारण अर्थों में तो समाज शब्द का अर्थ मनुष्यों का समुदाय होता है, किन्तु विशिष्ट अर्थ में गीत, वाद्य और नृत्य के उत्सव के लिए जो समुदाय एकत्र होता है, उसे रामायण काल में समाज" कहते थे।

संगीत व्यवसाय के रूप में

भारतीय संस्कृति के वैदिक युग में ही व्यवसायी गायक तथा वादकों के वर्गों के आविर्भाव के संकेत मिलते हैं। इतिहास काल तक कुशल व्यवसायी गायक-वादकों के एक बड़े वर्ग का निर्माण हो चुका था। इतिहास काल में सूत और मागघ लोग वीरगाथा के बहुत कुशल व्यवसायी गायक थे। ये लोग अधिकतर वीरगाथाओं का गायन करते थे। इनके अतिरिक्त और भी कुशल व्यवसायी गायक होते थे, जो भिन्न प्रकार के गान से लोगों का मनोरंजन करते थे। अयोध्या काण्ड के 65वें सर्ग के द्वितीय श्लोक में इन तीनों का एक साथ उल्लेख मिलता है। ऐसा वर्णन मिलता है कि राजा दशरथ की मृत्यु का उनके गायकों को पता नहीं था, इसलिए नित्य के नियमानुसार वे प्रातः आकर अपना गान करने लगे। सूक्ष्म ऐतिहासिक अध्ययन से यह जान पड़ता है कि प्राचीन समय में राजा अथवा बड़े-बड़े कुलीन लोग प्रातः मंगल ध्वनि से ही जगाए जाते थे। इस प्रकार का कर्म करने वालों को 'कुशीलव' कहा जाता था। अथवा उन 'चारणों' को 'कुशीलव" कहा जाता था, जो स्तुति गान करने में सिद्धहस्त थे। इस प्रकार इस काल में संगीत व्यवसायी लोगों के होने के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं।

संगीत का राज्य से सम्बन्ध

इस काल में संगीत समाज का एक अभिन्न अंग बन चुका था। राजा प्रजा, नर-नारी, वानर तथा राक्षस आदि सभी वर्गों में संगीत का पर्याप्त प्रचार था उत्सव एवं समारोहों के साथ-साथ संगीत नागरिकों के दैनिक जीवन का भी एक विशिष्ट अंग था। राजाओं का जीवन सदा संगीत से युक्त रहता था। प्रत्येक राजा यथा दशरथ, राम तथा रावण आदि प्रतिदिन चारणों, सूत, मागधों तथा बन्दियों की स्तुति एवं वाद्यवादन की ध्वनियों से जगाए जाते थे। रावण अपनी सभा में हजारों शंख वाद्यों की ध्वनि के साथ प्रवेश करता था, यथा:

तत्स्तूर्यसहस्स्राणां राजज्ञे निःस्वनो महान् । तुमुल: शंखशब्दश्च सभां गच्छति रावणे || 

अन्त्येष्टि संस्कार के अवसर पर भी बा-वादन आदि होता था। राम के स्वागत के समय भी वाद्यवादन हुआ था। किष्किन्या में जब लक्ष्मण सुग्रीव के पास जाते हैं, तो उन्हें मह में प्रवेश करते ही वीणा के साथ उसके मधुर स्वर में मिले हुए गीत सुनाई पड़ते हैं। ये त ताल से युक्त थे। धार्मिक कृत्यों में भी संगीत होता था। भरत ने राम की वापसी की सूचना सुनकर यह आदेश जारी कराया था कि शुद्धाचारी पुरुषों तथा कुल देवताओं द्वारा नगर के सभी देवस्थानों का सुगंधित पुष्प एवं गायन-वादन द्वारा पूजन किया जाए। दुष्ट व्यक्तियों के पथ पर भी प्रसन्नता हेतु वाय-वादन होता था। इसके विपरीत जन्म, विवाह तथा मनोरंजन आदि अस पर भी संगीत अनिवार्य था राम जन्म, विवाह तथा राज्याभिषेक के समय अप्सराओं के नृत्य एवं गंधवों के गायन का वर्णन मिलता है। राजाओं का अन्तःपुर सदा संगीतमय रहता था। अतः स्पष्ट हो जाता है कि उस समय दैनिक जीवन में संगीत का महत्वपूर्ण स्थान था। 

संगीतकारों की सामाजिक स्थिति

संगीतकारों के अन्तर्गत संगीत विद्या के वे ज्ञाता आते हैं, जो व्यवहार एवं सिद्धान्त दोनों क्षेत्रों में कुशल हों लव-कुश के गुरु आचार्य बाल्मीकि थे। इन दोनों ही गुरु-शिष्यों को समाज सम्मान की दृष्टि से देखता था ये शास्त्रीय संगीत अथवा गांधर्व का व्यवहार करते थे। समाज में गायक, वादक तथा नर्तकों का एक अन्य वर्ग भी था, जिन्हें यज्ञ, मनोरंजक कृत्य एवं 'समाज' तथा गोष्ठियों में आमंत्रित किया जाता था दशरथ ने इन्हें पुत्र प्राप्ति के अवसर पर यज्ञ में आमंत्रित किया था। उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर रामायण में संगीतकारों की स्थिति सम्मानीय मानी जा सकती है। शास्त्रीय रीति से किये गए संगीत को हेय नहीं समझा गया था। निम्नकोटि अथवा मनोरंजन मात्र का संगीत उच्च वर्ग द्वारा तथा अन्य वर्गों द्वारा निकृष्ट यदि समझा भी गया हो तो अस्वाभाविक नहीं था। इस काल के साहित्य से यह बात प्रकाश में आती है कि सम्भवतः ब्राह्मण वर्ग में अथवा समाज के अभिजात वर्ग के संगीत में धार्मिक पक्ष को ही अधिक सम्मान प्राप्त था?

पाठय, गेय, प्रमाण तथा सप्तजाति इत्यादि अन्य तत्त्व

यहाँ पाठ्य का अर्थ साधारण पाठ नहीं है, अपितु यह एक पारिभाषिक शब्द है। कुछ विशिष्ट नियमों के साथ पाठ करने को ही पाठ्य कहते हैं। उदात्त, अनुदात्त, स्वरित और कम्पित ये चार वर्ण हैं। जोर से उच्चारण किया हुआ वर्गगत स्वर 'उदात्त' है, धीमे उच्चारण किया हुआ 'अनुदात्त' और न बहुत जोर से, न बहुत धीमे उच्चारण किया हुआ 'स्वरित' है तथा किसी स्वर को लम्बा करके उसके मध्य भाग को कम्पा कर उच्चारण करना 'कम्पित' कहलाता है। भरत ने पाठ्य का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार के वर्णों का आश्रय लेकर भिन्न-भिन्न प्रकार के रसों व्यक्त करने के लिए बतलाया है। पाठ्य में काकू का विशिष्ट स्थान है। अतः काकू आदि भेदों का व्यवहार भी उस काल में किया जाता था। पाठ्य में छः अलंकारों का प्रयोग होता है. भरत ने निम्नलिखित अलंकारा है उच्चनीच, दुत तथा विलंबित 'प्रमाण' का अर्थ 'लय' है। तीन प्रमाण त् लोग-बुल मध्य तथा दिलों में उन बालकों ने रामायण काव्य को गाया। इस प्रकार के वर्णन इसी बात को सिद्ध करते हैं कि प्रमाण का अर्थ लय है, जो तीन प्रकार की होती है। रामायण में केवल सात जातियों के होने का वर्णन मिलता है। ऐसा लगता है कि उस काल तक जातियों का ही उद्भव हुआ था। मूर्खना का बोजारोपण साम-गान में हो हो चुका था। ब्राह्मण काल में मूर्खनाओं की संज्ञाएं भी बनने लग गयीं थीं। रामायण काल में इनका प्रचुर और स्पष्ट प्रयोग होने लग गया था। उत्तरकाण्ड में वर्णन आया है कि वीणा को किसी मुर्खना में मिलाकर ही मान या वादन किया जाता था।

आतोब अथवा रामायण कालीन वाद्य

इस काल में सभी प्रकार के बाजों की सामान्य संज्ञा 'आतोय' थी वोगा इत्यादि तत् याच मुरज इत्यादि आनर या अवनल वाद्य, बांसुरी इत्यादि सुषिर वाद्य और करताल इत्यादि न वाय-इन चारों प्रकार के वाद्यों का साधारण नाम आतोष है। इस 'आतोष से यह स्पष्ट है कि रामायण काल में तत्, अवनद्ध, सुषिर और धन सभी प्रकार के वार्यों का प्रयोग होता था। रामायण काल में वैदिकाल से भाँति वीणा का बहुत प्रचार था। रामायण में अयोध्याकाण्ड के 39वें सर्ग के 39वें श्लोक में, सुन्दरकाण्ड के दशवें सर्ग के 37वें और 40वें श्लोक में केवल दीपा का ही नहीं, वीणा के एक विशेष प्रकार विपंची का भी उल्लेख मिलता है। वेणु वाद्य वोणा के समान वैदिक काल में भी था। वंशी के अतिरिक्त 'तुरही भी एक बहुत प्राचीन फूँक का वाद्य है? शंख भी पूछकर बजाया जाने वाला वाच है, यह आज भी इसी नाम और स्वरूप में प्रचलित

दुन्दुभि एक बहुत ही प्राचीन वाद्य है, इसी को आजकल नक्कारा या नगाड़ा करते है। मेरी, मृदंग, पणव ये तीनों युद्धखण्ड के 44वें सर्ग के 12वें श्लोक में वर्णित हुए हैं। इनमें मृदंग से सभी लोग परिचित हैं तथा भेरी मृदंग जाति का वाद्य है। यह धातु को बनी होती है। संगीत रत्नाकार में लिखा है कि उत्तम भेरी कांसे की, मध्यम तांबे की और अधम लौह की बनी होती हैं। चारों ओर जो डम्ब डम्ब की ध्वनि को फेंके वह 'आडम्बर' है। मुरज, मृदंग अथवा मर्दल जांति का एक वाद्य है। चेलिका भी एक प्रकार का अवनद्ध वाद्य था। 'कोण' का अर्थ है-बजाने का डण्डा या उपकरण इसका वीणा अथवा अवनद्ध वाद्यों के बजाने के साधन के अर्थ में प्रयोग होता है। आचार्य बृहस्पति के अनुसार-“बाल्मीकि द्वारा वर्णित वल्लकी तथा विपंची दीणा को देखकर लगता है कि बाल्मीकि ने सारिकाहीन वाथों की तो चर्चा की है, परन्तु किन्नरो जैसे सारिका युक्त दायों की चर्चा नहीं की है। वस्तुतः उस युग में सारिकायुक्त वाद्यों का
आविष्कार नहीं हुआ था 

रामायण में ताल सम्बन्धी तत्त्व

लय शब्द बालकाण्ड के द्वितीय सर्ग के 18वें श्लोक में यथा “तन्त्रीलयसमन्वितम्” उत्तरकाण्ड के 71वें सर्ग के पन्द्रहवें श्लोक में यथा 'तन्त्रीलयसमायुक्त, उत्तरकाण्ड के 94वें सर्ग के तीसरे श्लोक में यथा 'तन्त्रीलयसमन्वितम्' में प्रयुक्त हुआ है। टीकाकारों ने 'लय' का अर्थ ‘द्रुत, मध्य तथा विलम्बित वृत्ति लिया है। आजकल प्रायः द्रुत, मध्य तथा विलम्बित वृत्ति के अर्थ. में ही 'लय' शब्द व्यवहूत होता है। ताल शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसमें वह आजकल प्रयुक्त होता है। निःशब्द और सशब्द क्रियाओं के लिए 'कला' का प्रयोग हुआ है। प्राचीन संगीत में ताल को हाथ से प्रदर्शन करने को 'किया' कहते थे। यह दो प्रकार की होती थी-निःशब्द और सशब्द 'शम्पा' एक सशब्द किया थी। 'शम्या' शब्द से स्पष्ट है कि संगीतरत्नाकर में वर्णित की सभी कियाओं को लोग रामायणकाल में भी जानते थे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि रामायणकाल में संगीत एक बहुत विकसित स्थिति को प्राप्त हो चुका था। इस काल में गायन, वादन और नृत्य के लिए संगीत का प्रयोग किया जाता था। संगीत समाज का एक अभिन्न एवं विशिष्ट अंग था। इस काल में संगीत का प्रचार-प्रसार उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक सभी में था राजा एवं राज्य के साथ संगीत का घनिष्ठ सम्बन्ध होता था। राजा प्रायः गीत-संगीत से ही सोते और जगते थे। संगीत जीवी वर्ग का इस काल में काफी प्रचार हो चुका था। सम्भवतः इस काल में संगीत एवं नृत्य के कुछ निम्न वर्ग भी थे। इन लोगों को समाज में अच्छा स्थान प्राप्त नहीं होता था, परन्तु संगीत, संस्कृति और समाज के इतने विस्तृत क्षेत्र में ऐसे कुछ लोगों का होना स्वाभाविक ही जान पड़ता है। संगीत के शास्त्र पक्ष यथा लय, ताल, वाद्य, नृत्य, जाति तथा मूच्छर्ना आदि का वर्णन इस काल में मुक्त रूप से हुआ है। निःसन्देह जिस युग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने जन्म लिया वह युग बड़ा ही पावन, पवित्र, एवं धर्मपरायण रहा होगा। 'संगीत' धर्म एवं संस्कृति के साथ-साथ धन धान्य एवं खुशहाली का प्रतीक होता है। अतः रामायण काल में संगीत का सम्मानीय एवं उच्च आसन पर आसीन होना अपेक्षित ही है।

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