Raag Khamaj ka sampurn parichay.
राग खमाज।
राग खमाज अपने ही रागांग "खमाज अंग" अर्थात इसके विशिष्ट स्वर अथवा स्वरों से बनी रागवाचक विशेष स्वर संगतियों से उत्पन्न अर्थात प्रदर्शित होता है, खमाज थाट से नहीं। इसके आरोह में शुद्ध निषाद तथा अवरोह में कोमल निषाद ( मतांतर में शुद्ध निषाद भी) लगते हैं। बाकी स्वर शुद्ध हैं। इस के आरोह में ऋषभ वर्जित तथा अवरोह सम्पूर्ण है। अतः इस की जाति षाड़व सम्पूर्ण है। इसका वादी स्वर गंधार तथा सम्वादी स्वर निषाद है। इस का गायन समय मध्य रात्रि है। घराना परंपरा से कोई-कोई इसके आरोह में ऋषभ प्रयोग करके सम्पूर्ण जाति से भी गाते-बजाते हैं।
आरोह :- सा, ग, मप, ध, नि, सां ।
अवरोह :- सां नि_ध, प, म ग, रेसा ।
पकड़:- नि_ ध-मपध-मगपमगरेसा
अथवा धनिसां नि_ध- मपथमग ।
स्पष्टीकरण तथा संशोधन
9. राग खमाज अपने ही रागांगों से उत्पन्न अर्थात प्रदर्शित होता है, खमाज थाट से नहीं ।
२. प्रचलित राग रूपानुसार खमाज के आरोह में शुद्ध नि तथा अवरोह में कोमल नि प्रयोग होता है ।
३. प्रचलित राग रूप के अनुसार इसके आरोह में ऋषभ वर्जित माना जाता है, फिर भी जिन बंदिशों में ऋषभ को कण रूप में प्रयोग किया गया है उन्हें घराना परंपरा के आधार पर सम्पूर्ण जाति की बंदिश मानी जानी चाहिए।
४. जो विद्यार्थी अथवा शिक्षक ऋषभ को आरोह गति में कण के रूप में (घराना परंपरा के आधार पर) प्रयोग करना चाहेगें वे इसे अवश्य ही वर्जित स्वर न कहे और इस की जाति भी सम्पूर्ण ही माननी चाहिए ।
विद्यार्थी तथा शिक्षक यह अवश्य ही ध्यान रखें कि किसी भी राग में बंदिश की स्वर संगतियों के अनुसार ही उसकी जाति, उसके आरोह-अवरोह स्वरूप, स्वर विस्तार तथा तानालाप आदि निर्धारित होना चाहिए तथा बंदिश की स्वर संगतियों को ही रागाधार तथा रागरूप मानना चाहिए। ऐसा कदापि न हो कि विद्यार्थी गायें-बजायें सम्पूर्ण जाति की बंदिश और उसकी जाति माने पाव- सम्पूर्ण की, जैसे राग बिहाग, जिसमें विद्यार्थी उसकी बंदिशें गाते हैं सम्पूर्ण जाति से और उसे जानते है औड़व सम्पूर्ण जाति के रूप में।
६. ऐसा कदापि न हो कि बंदिशें हो एक घराने शैली की और उसमें आलाप, स्वरविस्तार, तानादि हों दूसरे घराने की शैली से ज्ञात हो कि क्रमिक पुस्तक मालिकाओं की कुछ बंदिशों को छोड़कर अन्य सारी बंदिशें विविध घराने के उस्तादों से ही संग्रहीत हैं। कोई राग थाट से नहीं बल्कि रागांगों से वर्गीकृत किया जाना ही सैद्धांतिक
७.तथा विज्ञान सम्मत है।
८. से नहीं। कोई भी राग अपने रागवाचक अंगों से ही पहचाना जाता है, किसी थाट ६. किसी भी राग में एक अथवा एकाधिक रागों के रागांग ही दिखाई देते हैं,
१०. लक्षण गीतों में मेल अथवा थाट शब्द के स्थान पर राग के नाम से अथवा
राग में स्पष्ट तथा प्रमुख अंग के नाम से जैसे कल्याण अंग, हमीर अंग, काफी अंग,
तोड़ी अंग, सारंग अंग, मल्हार अंग, ललित अंग, कन्हाड़ा अंग आदि शब्द जोड़कर
गाया जाना ही अधिक तर्क संगत होगा।
११. क्रमिक पुस्तक मालिकाओं की सभी चीजें जैसे- राग वर्णन, बंदिशें, आरोह अवरोह, उठाव, चलन, स्वरविस्तार आदि विविध घराना परम्पराओं के विविध कलाकारों से संग्रहित हैं। अतः विद्यार्थी तथा शिक्षकों को यह ध्यान रखना अति आवश्यक होगा कि घराना परंपरा पर आधारित राग स्वरूपों की विवादित विविधताओं में किसी एक राग के रागरूप की प्रामाणिकता निर्धारण के लिये उस राग की बंदिश की स्वर संगतियाँ ही शास्त्राधार स्वरूप मान्य तथा तदानुसार आरोह-अवरोह, स्वर-विस्तार, तानादि होने चाहिये।
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