Importance of Bandish in North Indian Music | उत्तर भारतीय संगीत में बंदिश का महत्त्व

उत्तर भारतीय संगीत में बंदिश का महत्त्व

बंदिश भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक आवश्यक अंग है और केवल बंदिशों के ही माध्यम से हिन्दुस्तानी संगीत की समृद्धशाली परम्परा को आने वाली पीढ़ी- दर-पीढ़ी को सुरक्षित रखा जा सकता है।

संगीत में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए हैं, राग-ताल के स्वरूपों में बदलाव आये हैं, जिनका प्रत्यक्ष प्रभाव बंदिशों पर पड़ता रहा है। पहले और अब के कलाकारों की सांगीतिक कल्पना, उनके राग ताल के प्रति ज्ञान को बंदिश के द्वारा ही जाना जा सकता है। 'बंदिश' फारसी शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "बाँधने की क्रिया का भाव।" वह सांगीतिक रचना जो शब्द और ताल से बंधी हो, बंदिश कहलाती है, अर्थात् बंदिश शब्दों का वह ढाँचा या प्रेम वर्ण है जिसमें कलाकार की कल्पना की डिजाइन रहती है और स्वर ताल-पद का समन्वय। इस अर्थ में प्राचीन प्रबन्ध की तुलना बंदिश के शाब्दिक अर्थ से ही की जा सकती है। प्रबन्ध का भी अर्थ है, "अच्छी तरह बँधा हुआ", किन्तु प्रबन्ध में कलाकार को उतनी स्वतन्त्रता नहीं थी जितनी कि आज राग की बंदिशों में है।

बंदिश के मूल तत्त्व तीन हैं-

(1) तोनल स्वर जो किसी राग के हों।

(2) बंदिश किसी ताल के ठेके में बँधी हो।

(3) पद जिसमें शब्दों की सार्थकता हो, जिसमें संवाद भाव का ध्यान रखा गया हो।

सर्वप्रथम वेदों में 'छान्दोग्य उपनिषद् में' और सामवेद के अन्य स्थलों पर सामवेदिक गीति रचनाओं के 6 भाग 'भक्ति स' से नाम से मिलते हैं- प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधान, हिंकार और प्रणव। इसके बाद भरत के नाट्यशास्त्र में पद का समन्वय था, उस समय प्रचलित 6 प्रकार के गीतों का वर्णन भरतकृत नाट्यशाला में मिलता है, जिनका उद्गम सामवेद से माना गया है। इन सभी गीति रचनाओं में छन्द और ताल के कठोर नियम थे। ताल, यति और शास्व में 18 जातियों का वर्णन मिलता है, जिनमें स्वर विधान, छन्द और भावों का समुचित समन्वय मिलता है। वास्तव में भरत द्वारा वर्णित ध्रुवाओं को ही पद या प्राचीन प्रबन्ध कहा जाने लगा जिनमें ताल, यति, लय, छन्द, रस और भाव का उचित प्रयोग होता था।

प्राचीनकाल से लेकर आज तक पद अर्थात् बंदिश का महत्त्व रहा है, चाहे वह प्रबन्ध हो, ध्रुवपद, धमार या ख्याल का पद हो। वास्तव में बंदिश के द्वारा ही राग के अस्तित्व को समझा जा सकता है। बंदिश राग की एक विशिष्ट आकृति है, नयी-नयी आकृति का सौन्दर्य पाने के लिये या एक ही राग की कई शक्लें या रूप दिखाने के लिये यह एक अच्छा तरीका है। तदुपरान्त हर बंदिश का एक मिजाज रहता है, जो साहित्य के नव रसों या संचारी व्यभिचारी भावों की परिभाषा से समझाया नहीं जा सकता है। इस मिजाज को समझकर जब बंदिश पेश की जाती है तो इस आकृति का सौन्दर्य खिल उठता है। इन बंदिशों के द्वारा ही संगीत की परम्परा को गुरुओं द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम रखा गया है। इन्हें गेय पद भी कहा जा सकता है।

प्रत्येक घराने के भिन्न-भिन्न रचनाकार होते हैं जो अपनी व्यक्तिगत कल्पनात्मक सृजनशीलता से स्वर-पद-ताल का समन्वय कर बंदिशों का निर्माण करते हैं, इसीलिये इन अलग-अलग रचनाकारों द्वारा बनाई गई बंदिशों के भिन्न-भिन्न रूप दिखलाई पड़ते हैं। राग सबका एक होता है किन्तु बंदिशों का ढाँचा, रूप भिन्न- भिन्न और यहीं से भिन्न-भिन्न घरानों की पहचान होती है। ये सभी बंदिशें परम्परा में नियमबद्ध होती हैं, इनका मुखड़ा भी राग के अनुसार होता है। ख्याल के विकास का सम्पूर्ण इतिहास हमें बंदिशों के माध्यम से मिलता है और प्रत्येक घराने के नियम, कानून, कायदे, लक्षण इन्हीं बंदिशों से ज्ञात हो जाते हैं। राग के मूलरूप को समझने के लिये अधिक से अधिक मात्रा में बंदिशें सीखना अच्छा है। बंदिश की रचना के लिये राग का ज्ञान आवश्यक है। उसी प्रकार मारू विहाग भी लोकप्रिय हुआ। उस्ताद इनायत हुसैन खाँ साहब की एक बंदिश है- "रसिया हो न जा" बंदिशों का अधिकतम संग्रह राग को लोकप्रिय बनाने में सहायक है। बंदिशों का अच्छा साहित्य भी राग को समृद्ध बनाता है, रसों की समृद्धि साहित्य से होती है। "साजन बिन बावरी भई। मैं" से मन की व्याकुलता का बोध होता है। बंदिश के अन्दर आलाप, बोल बनावे, सरगम, बोलतान, तान इत्यादि। कहीं- कहीं बंदिश के मुखड़े का प्रारम्भ ही छोटी-सी तान से होता है जैसे हंस ध्वनि की बंदिश "लागी लगन संग।"

बंदिश के दो भाग हैं- राग, ताल। रागों के समान ही विभिन्न तालों में बंदिशें उपलब्ध हैं। तीनताल में सबसे ज्यादा बंदिशें उपलब्ध हैं, क्रमिक पुस्तक मालिकाओं में लगभग 800 बंदिशें तीन ताल में हैं, रूपक ताल में भी अनेक बंदिशें बन रही हैं जैसे- "डमरू हर कर बाजे"।

नवाबों को प्रसन्न करने के लिए ठुमरी शैली में गतों की बन्दिश की गई तुमरी वादन के साथ तबले पर दीपचन्दी ताल बजती हैं। द्रुत गतों से प्रभावित होकर कलाकारों ने कुछ द्रुत लय की तुमरियों की रचना भी की और ठुमरी के कुछ विशेषज्ञों ने तबला वादकों से नोक-झोंक करनेवाली द्रुत लय की चमत्कारपूर्ण बोल- बाँट की ठुमरियों का भी वादन किया। वर्तमान काल के अनेक सितार-वादकों ने ठुमरी वादन को अपनाया और महारत हासिल की है। ठुमरी की बंदिशों में स्थाई और अन्तरा दो उपखण्ड होते हैं, जिसके आधार पर ठुमरी को चार भागों में विभक्त किया जाता है। पहले भाग को छेड़छाड़ अथवा पकड़ कहते हैं, जिसमें बंदिश आरम्भ करने से पूर्व राग का संक्षिप्त आलाप करते हैं। दूसरा भाग स्वर विस्तार है। इसमें बन्दिश की स्थाई गा या बजाकर उसके स्वरों के विभिन्न भागों को, स्वरों के विस्तार द्वारा व्यक्त किया जाता है। तीसरे भाग में बहलावे की चाल होती है।

संगीत की परम्परागत शिक्षा में बदलाव आया है। जब प्रबन्ध का प्रचलन था तब उसकी बंदिशें थीं, उनकी कल्पनात्मक बढ़त का क्षेत्र नहीं था, समय के साथ ये बन्धन खत्म हो गये और ध्रुवपद का विकास हुआ, ध्रुवपद में इस प्रकार के आलाप ने स्थान ले लिया और बंदिश के सख्त नियम कम हुए और चार अंग विकसित हो गये हैं।

यदि बंदिशों के रचयिताओं का ध्यान करें तो देखते हैं कि ध्रुवपद की बंदिशों के रचयिता स्वामी हरिदास, तानसेन, बैजू, बख्शू, सदारंग रहे। ख्याल में बंदिशों के रचनाकार सदारंग, अदारंग, मनरंग, हररंग, दरसदिया, सरसदिया, प्रेमदिया, प्रानप्रिया, रामरंग इत्यादि रहे।

उस्ताद फैयाज़ खाँ, उस्ताद विलायत हुसैन खाँ, उस्ताद अमान अली खाँ, उस्ताद तानरस खाँ, उस्ताद चाँद खाँ, उस्ताद अमीर खाँ, उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ, उस्ताद इनायत हुसैन खाँ, पं० भातखण्डे, एस०एन० रातंजनकर, वी०एन० पटवर्धन जैसे वाग्गेयकारों ने सैकड़ों ध्रुवपद, घमार, ख्याल, दादरा, लक्षण गीत और सरगम रचे हैं।

ठुमरी तथा धुन अंग की बंदिशों को बजाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि उस ठुमरी अथवा धुन के शब्दों का सितार पर स्पष्टतः विकास हो सके। ठुमरी तथा धुन अंग की बंदिशों में मिजराव के बोलों की प्रधानता नहीं होती तथा ठुमरी का मुखड़ा बजाने के बाद वादक छोटे-छोटे टुकड़ों में विस्तार करते हुए गत का मुखड़ा पकड़ते हैं।

अधिकतर बोल बाँट की तुमरियों के रचनाकारों ने अपनी रचना में उपनाम "पिया' का प्रयोग किया है। जैसे 'चाँद पिया, ललन पिया, सरस पिया" आदि किन्तु सितार की गतों में शब्दों के अभाव के कारण यह ज्ञात करना कठिन हो जाता है कि कौन-कौन से गतकारों की किस-किस लोकप्रिय गतों पर बोल बाँट की ठुमरियाँ रची गईं।

बंदिशों का महत्त्व इसलिये और भी है क्योंकि रागों का गायन समय भी बंदिश से ज्ञात होता है, उदाहरण के लिये भैरव राग में निबद्ध बंदिश "साँवरे जागो भई भोर", अहीर भैरव की बंदिश "भोर भई जागो" इत्यादि।

बंदिशों के माध्यम से इन रागों के बदलते रूप का ज्ञान होता है, जैसे अहीर भैरव में धनी रे का महत्त्वपूर्ण प्रयोग पहले की बंदिशों में नहीं मिलता, कभी इससे शुद्ध रिषभ का प्रयोग होता था, ललित में पहले केवल शुद्ध चैवत का प्रयोग होता था अब केवल कोमल धैवत का प्रयोग होता है। सारंग में 50 वर्ष पूर्व दोनों निषाद का प्रयोग होता था। पर आज के शुद्ध सारंग में कोमल निषाद वर्जित है। नयी- नयी बंदिशें बन रही हैं।

आज के युग में कलाकार को अपनी कला के विकास के लिए अधिक सुविधा मिली है, क्योंकि आज उसे आकाशवाणी, ग्रामोफोन, टेप रिकार्डर, संगीत की पुस्तकें, पुरानी बंदिशों की स्वरलिपियां उपलब्ध है।

चित्रकला या फोटोग्राफी में बंदिशें नहीं होती हैं, लेकिन उत्तर भारतीय संगीत इस विषय में अनूठा है। बंदिश को सुन्दर बनाने के लिये बहुत ही भावना का दिग्दर्शन होता है।


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  1. Nice Content i hope you doing well and also Immerse yourself in the enchanting world of love with new romantic song"Jeene Ki Wajah Tum Ho"! 🎶 Let Tanish Sharma's soulful voice touch your heart and take you on an emotional journey. Witness the beautiful chemistry of Abhishek and Nitali, bringing this heartfelt story to life. Don't miss this magical experience—watch the official music video now! ❤️✨

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